बुधवार, 13 नवंबर 2019
मंगलवार, 12 नवंबर 2019
क्या कोई सत्य है जिसको खोजा जा सके ? सत्य किसे कहते हैं, सत्य खोजना कहाँ जाना होगा ? क्या ऋषि मुनि हिमालय की ओर सत्य की खोज में जाते थे ?
जब
तुझे लगे / कि दुनिया में सत्य / सर्वत्र / हार रहा है // समझो / तेरे
भीतर का झूठ / तुझको ही / कहीं मार रहा है - ये मेरी ही कविता पंक्तियां
हैं, पर ये आपके सवाल का जवाब नहीं हैं -
देखा
जाए तो कोई निरपेक्ष सत्य नहीं होता, किसी विषय की सापेक्षता में ही
सत्य पर बात की जा सकती है। आप किस विषय से संबंधित सत्य जानना चाहते हैं
यह पता होने पर ही उस पर कुछ कहा जा सकता है।
जिस विषय पर आप सामने वाले को कनविंश कर सकते हों कि यह इस कारण से ऐसा है या ऐसा नहीं है वही आपका सत्य है।
जीवन
सत्य का अर्थ सामान्यतया जीवन और मृत्यु है। हम आते कहां से हैं और
जाते कहां हैं यही सवाल हैं जिसके जवाब की खोज को सत्य की खोज कहा जाता है
और आज तक इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है किसी को।
ऋषि
मुनि इसी सच की खोज में हिमालय में जाते थे मतलब वे प्रकृत्ति में खो जाते
थे, वहां से लौटकर आकर सच बताने के प्रसंग नहीं हैं। यह प्रतीकात्मक कथन
है, कि वे सच की खोज में हिमालय में गये। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भी
यह सवाल की तरह ही है -
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
यह जगत कैसे अस्तित्व में आया किसने इसे बनाया यह सब इसे बनाने वाले को पता होगा या क्या जाने उसे भी पता है या नहीं।
गांधी ने कहा कि सत्य ही ईश्वर है। और सच वही है जो व्यक्ति व समाज के हित में सकारात्मक है।
· Vishnu Sharma ने जवाब का अनुरोध किया है
मंगलवार, 5 नवंबर 2019
आपके "जन्मदिन" न मनाने का क्या कारण है ?
मुझे नहीं लगता कि उस दिन को मनाने का कोई तुक है जिस दिन हम एक असहाय जीव के रूप में जन्म लेते हैं।
मुझे लगता है वह दिन मनाना चाहिए जब आप पहली बार खडे होना सीखते हैं या चलना शुरू कर देते हैं।
या जिस दिन पहला अक्षर लिख पाते हैं उसे एक यादगार दिन के रूप में मनाना चाहिए।
मुझे लगता है वह दिन मनाना चाहिए जब आप पहली बार खडे होना सीखते हैं या चलना शुरू कर देते हैं।
या जिस दिन पहला अक्षर लिख पाते हैं उसे एक यादगार दिन के रूप में मनाना चाहिए।
असली में सन्यासी कौन होता है?
अपने अहम को नष्ट करना ही संन्यासी होना है। यही मोक्ष का मार्ग है।
खुद से दुनिया के तमाम जीवों की अभिन्नता को जानना ही मोक्ष है और संन्यास उसका मार्ग है।
अहम
नहीं रहे इसीलिए संन्यासी भिक्षु वृत्ति से अपनी जीविका जुटाते हैं
क्येांकि भीख मांगने के लिए अपने अहम को त्यागना पडता है। अहम मुक्त
क्रिया कलाप को ही साक्षी भाव से किया गया काम कहा जाता है। जैसे अन्य की
तरह काम करना। खुद को काम करते देख पाना इससे संभव होता है।
इसी से वसुधैव कुटंबकम का भाव पैदा होता है।
बाकी
मूड मुडाने या बाना धारण करने से संन्यासी नही होता। यह सब केवल खुद को
अहम मुक्त करने, रखने में सहायता के लिए बाहरी आडंबर हैं। मूल है अंतर को
अहम से मुक्त करना।
Bijoy Raj Guha ने जवाब का अनुरोध किया है
क्या ये कहना सही है- "प्यार किया नहीं जाता हो जाता है"?
प्यार ही नहीं दुश्मनी भी की नहीं जाती हो जाती है।
आप
निकलते हैं किसी मकसद से कहीं और सामने आये व्यक्ति के हाव भाव आपको पसंद
नहीं आते जिसकी प्रतिक्रिया में आपके जो हाव-भाव सामने आते हैं उसके जवाब
में सामने वाला कुछ वैसा ही कर बैठता है जैसा आपने सोचा था। इस तरह बैठे
बिठाये हम एक दूसरे की मुसीबत बन जाते हैं।
· स्वर्णा कुमारी (Swarna Kumari) ने जवाब का अनुरोध किया है
सोमवार, 4 नवंबर 2019
राष्ट्रवादी होने के नाते क्या आप एक बुरे भारतीय की तरफ़दारी एक सहृदय विदेशी से ज्यादा करेंगे?
राष्ट्रवाद आज एक राजनीतिक शब्द है, इसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं।
अभी
दुष्यंत चौटाला राष्ट्रवादी भाजपा के साथ सराकार बनाने जा रहे। चुनावों
के दौरान उन्होंने कहा था कि क्या ये दो गुजराती हमें राष्ट्रवाद
सिखाएंगे। हरियाणा का हर दसवां आदमी सेना में है। राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद
बोलने से नहीं होता।
मैं
जनवादी हूं, जन से ही राष्ट्र है। और कोई जन ही राष्ट्र की बात कर रहा
और कर सकता है। राष्ट्र खुद कोई बात नहीं कह सकता और कोई उसकी ठीकेदारी
नहीं ले सकता।
तो
हमें उस जन से बहस करनी होगी, पूछना होगा कि पार्टनर तेरी पालिटीक्स क्या
है, क्योंकि सगुण से ज्यादा निर्गुण भक्ति की मान्यता है, राष्ट्र भी
सगुण और निर्गुन दोनों है।
सेना
राष्ट्र है तो किसान उससे बडा राष्ट्र है क्योंकि उसके उपजाये को खाकर
ही सेना का राष्ट्रवाद जीवित रहता है। दीप जलाना राष्ट्र है तो
बेरोजगारों केा दीप जलाने को तेल बाती उपलब्ध कराना ही सच्चा राष्ट्रवाद
है।
राष्ट्र में
आप मांसाहार पर बहस चलाते हैं और बाहर जाकर गौकशों से गले मिलते हैं और
राष्ट्र जरा शर्मिंदा नहीं होता। ऐसे राष्ट्रवाद पर आधारित इस सवाल का
क्या मतलब। यह सवाल सहज नहीं।
1 बार देखा गया · आशुतोष अग्निहोत्री (Ashutosh Agnihotri) ने जवाब का अनुरोध किया है
दुनिया को देखने का नकारात्मक और वितृष्णा भरा नज़रिया कैसे बदलें ?
आप आत्मविश्लेषण करें। नकारात्मकता के कारकों पर खुद विचार करें।
एक बार अगर कारणों पर विचार करेंगे तो फिर अगली बार कारक वही नहीं रहेंगे।
दिन के बाद रात होगी फिर दिन,यह हमारे सोचने का गलत तरीका है के अंधकार से मुक्ति चाहिए, अंधकार में ही सारा विकास होता है, बच्चा गर्भ के अंधकार में है बढ़ता है।
इस तरह सोचने पर अंधकार के प्रति नजरिया जिस प्रकार बदलेगा उसी तरह जीवन के प्रति भी सकारात्मक नजरिया बनाया जा सकता है।
एक बार अगर कारणों पर विचार करेंगे तो फिर अगली बार कारक वही नहीं रहेंगे।
दिन के बाद रात होगी फिर दिन,यह हमारे सोचने का गलत तरीका है के अंधकार से मुक्ति चाहिए, अंधकार में ही सारा विकास होता है, बच्चा गर्भ के अंधकार में है बढ़ता है।
इस तरह सोचने पर अंधकार के प्रति नजरिया जिस प्रकार बदलेगा उसी तरह जीवन के प्रति भी सकारात्मक नजरिया बनाया जा सकता है।
मंच पर बोलने को लेकर क्या आपमें कोई झिझक है?
हां, यह अभी भी है मुझमे।
अब मुझे स्टेज पर जाना अच्छा नहीं लगता। इसी कारण हाल के वर्षों में मैंने रेडियो और दूरर्शन के कार्यक्रमों में जाने से भी बचने की कोशिश की है।
गोलमेज पर बैठकर मैं पूरे दिन लोगों से बहस कर सकता हूं पर अलग से स्टेज पर बोलना सहज नहीं।
पिछली बार एक जगह अचानक बुला देने से मैं ठीक से बोल नहीं सका।
यूं इससे पहले स्थिति ठीक थी। ऐसे में मैं पहले से तैयारी कर जो बोलना है उसे लिखकर ले जाता हूं। गांधी और नेहरू की भी आरंभ में यही स्थिति थी।
पटना में एक बार पुस्तक मेले में अग्रज पत्रकार मित्र श्रीकांत ने अचानक मुझे एक मंच पर बुला दिया।
ऐसे में सीधे सहज मुददे पर जो आपकी राय हो उसे रखना सही होता है।
मैंने ऐसा ही किया तो मेरे बोलने पर तालियां बजीं।
यूं स्टेज पर कविताएं पढने में मुझे कभी दिक्कत नहीं होती।
अब मुझे स्टेज पर जाना अच्छा नहीं लगता। इसी कारण हाल के वर्षों में मैंने रेडियो और दूरर्शन के कार्यक्रमों में जाने से भी बचने की कोशिश की है।
गोलमेज पर बैठकर मैं पूरे दिन लोगों से बहस कर सकता हूं पर अलग से स्टेज पर बोलना सहज नहीं।
पिछली बार एक जगह अचानक बुला देने से मैं ठीक से बोल नहीं सका।
यूं इससे पहले स्थिति ठीक थी। ऐसे में मैं पहले से तैयारी कर जो बोलना है उसे लिखकर ले जाता हूं। गांधी और नेहरू की भी आरंभ में यही स्थिति थी।
पटना में एक बार पुस्तक मेले में अग्रज पत्रकार मित्र श्रीकांत ने अचानक मुझे एक मंच पर बुला दिया।
ऐसे में सीधे सहज मुददे पर जो आपकी राय हो उसे रखना सही होता है।
मैंने ऐसा ही किया तो मेरे बोलने पर तालियां बजीं।
यूं स्टेज पर कविताएं पढने में मुझे कभी दिक्कत नहीं होती।
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