अपने अहम को नष्ट करना ही संन्यासी होना है। यही मोक्ष का मार्ग है।
खुद से दुनिया के तमाम जीवों की अभिन्नता को जानना ही मोक्ष है और संन्यास उसका मार्ग है।
अहम
नहीं रहे इसीलिए संन्यासी भिक्षु वृत्ति से अपनी जीविका जुटाते हैं
क्येांकि भीख मांगने के लिए अपने अहम को त्यागना पडता है। अहम मुक्त
क्रिया कलाप को ही साक्षी भाव से किया गया काम कहा जाता है। जैसे अन्य की
तरह काम करना। खुद को काम करते देख पाना इससे संभव होता है।
इसी से वसुधैव कुटंबकम का भाव पैदा होता है।
बाकी
मूड मुडाने या बाना धारण करने से संन्यासी नही होता। यह सब केवल खुद को
अहम मुक्त करने, रखने में सहायता के लिए बाहरी आडंबर हैं। मूल है अंतर को
अहम से मुक्त करना।
Bijoy Raj Guha ने जवाब का अनुरोध किया है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें